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कविता

माँ की डायरी से

आरती


अभी अभी जन्मा था वह
और रोया भी था
रोया नहीं दरअसल मुस्कुराया था इस तरह
कि अँजुरी भर गुलाल बिखर गया आसपास
रंग गए रिश्ते नातों के महीन धागे
आसमान गुलाबी हो गया
उसके घुँघराले बालों को छूकर हवाएँ थिरकने लगीं
पहला रुदन, यह आदिमराग
यहीं से बनते हैं गीत
यहीं से कहानियाँ
साल और तारीखें भी यहीं से
यहीं से...

मैं स्त्री हो गई थी समूची स्त्री
कि मेरे आँचल में कुनमुना रहा था
एक नन्हा ‘सोता’
हवाओं के साथ बहने की कोशिश करता
हाथ पाँव मारता गहरे पानी में जैसे
मेरी आँचल में उसकी भूख का पर्याय था

यह तीसरा दिन था जब
मेरी सुबह और दिनों से अलहदा थी
वह परियों की बाँहों में झूलता रहा था शायद
गुलाबी होठों को फैलाए बिना
मुस्कुरा रहा था
मैं नहीं रोक पाई उँगलियों की पोरों को
धीरे से छू लिए गाल
बारिश में नहाए फूल की पंखुड़ियों सरीखे

मैं उसे नाम देना चाहती थी
खोजा क्यारियों के बीच
चिड़ियों और तितलियों के घर गई
नदियों झरनों पहाड़ों में भटकती रही
हवाओं के बीच कुछ पल गुजारे
आसमान में जाकर एक एक तारे से पूछे उनके नाम
उसके जैसा कोई कहाँ था
मैं परियों के गाँव जाकर
ढूँढ़ूँगी, एक सुंदर सा नाम

किसी लय सा आलोड़न बह रहा था
मेरे भीतर, मालकोश गूँजता तब तब
जब वह खींचता जीवनरस
मोहन वह, मुरली बजाता दुधियाए होंठों से
उँगलियाँ उसकी लहराती रहतीं
जब तक छेड़ता तान
फिर थककर सो जाता
सचमुच दिशाएँ मुग्ध हो जातीं
और मैं बन जाती
पूरी की पूरी वृंदावन

आज मेरी सुबह को नीम की पत्तियों ने
खुशबू से भर दिया
उतर आईं नहाने के पानी में
घर के कोनों में भर गई हल्दी सने भात की महक
दूध पीपल के एक एक घूँट ने
रक्त में घोल दिया परिवर्तनों का स्वाद
और लोटे भर भर आशीषें मेरे सिर पर उड़ेली गईं
हरेक बूँद को जतन से समेटकर
रख लिया है मैंने अपनी पीली चुनरी के आँचल में
कि बनाऊँगी बखत बखत पर
उसके मोजे दास्ताने, झबले टोपी
और भविष्य की चिंताओं के लिए भी कुछ ढाल जैसे

जैसे अलसाई पत्तियों के मुँह
ओस की बूँदें धो देती हैं और वे
कुल्हड़ भर भर रोशनी सुड़कने लगती हैं
उसने मेरे पेट में गुलाबी पाँव मारे
हथेलियों से टटोला आँचल
कि जाग जाग उठी मैं
जैसे कभी सोई ही न थी


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